Madhu's world: 2010/07 - 2010/08 l

7/14/2010

एक आस ....




आज एक आस सी जगी है मन में कि काश कुछ ऐसा हो जाए ,
आहें सब फूलों में बदल जाएँ और खुशियों के आंसू छलक आयें|
पालें है वैमनस्य के ढेर से पक्षी जो अपने दिलों में हमने...
चलो आज दिल खोल कर अपना उन्हें कही दूर उड़ा आयें |
जो चला गया है हमें छोड़ कर वो अब वापिस न कभी आएगा
सोचें की जो रह गएँ है हमारे , कहीं वो भी बिछुड़ ना जाएँ |
रेत की स्लेट पर ये ढेरों तस्वीरें तो बना डाली है हमने ,
डरना कि तेज हवा का झोंका इन्हें कहीं मटियामेट न कर जाए |
ये जो आज है , ये ही बस हमारा है चलो इसे जी ले जी भर के ,
ये कोई दावा तो नहीं है कल का ,शायद वो कल ना ही आये |..........मधु 14जुलाई 2010

Labels:

7/10/2010

देश नहीं छुटता


देश छुट जाता है,
बाहरी रूप से ,
मगर देश नहीं छुटता
अंतर्मन से
क्यों होता है ऐसा
सिर्फ हमारे साथ,
हम भारतीयों के साथ,
किस्मत की हवा जहाँ भी ले जाए हमें ,...
धरती का कोई भी कोना हो ,
कैसे भी लोग हों,कोई भी भाषा हो,
हम कुछ न कुछ कर के ,
छुपा कर, चुरा कर ,दबा कर ,
और कलेजे से लगा कर ,
अपना भारत ,
अपने साथ ले आते है ,
और वो भारत,
कभी हिंदी ,पंजाबी,तमिल,तेलुगु ,गुजराती ,मराठी में
बतियाता है ,
तो कभी,
हींग के तडके में ,
रासम के मसाले में ,
आलू मूली के परांठों में ,
खस्ता कचोरियों में ,
अचार के मसालों में
गंधाता है,
और कभी
आरती के सुर में,
सतनाम के जाप में ,
वैदिक मन्त्रों के कर्ण नाद में ,
छट,करवाचौथ,वट सावित्री,
या अन्नंत चौदस की कथा में
गुंजाता है ,
देश छुट जाता है ,
पर देश नहीं छुटता,
हाँ भारत देश नहीं छुटता..
कभी नहीं छुटता,
शायद इसलिए
की
भारत कोई देश नहीं है ,
भारत कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है
भारत भोगोलिक सीमाओं में बंधा
कोई मानचित्र नहीं है ,
भारत तो एक भावना है ,
भारत तो एक आत्मा है ,
भारत तो साँसें है ,
भारत तो प्राण है ,
और इसीलिए
देश छुट जाता है ,
पर देश नहीं छुटता ,
अंतर्मन से ,
हाँ भारत देश नहीं छुटता
कभी नहीं छुटता
और इस देश का वासी
जीवन की अंतिम घडी में भी
बस यही मांगता है
उस मालिक से,
अगला जनम मोहे भारत में ही दीजौ ...मधु

Labels:

7/06/2010

Mere Sher

खरीदा भी बटोरा भी सामान तो बहुत हमने दुनिया में ,
चलो अब अपने लिए एक कफ़न भी खरीद कर रख ही डालें ....मधु

रुक जाती, ठहर जाती वो आखरी सांस अगर अपनी तो ,
हम उन से लौटने का वायदा कर के ही इस जहाँ जाते .....मधु

दस गुना होकर लौट आएगा तुझ तक तेरा अपना ही किया ,
आज कुछ करने से पहले सोच ले कि तुझे क्या चाहिए ....मधु

ऐ वक्त ! गर मुनासिब हो तो बस इतना ही रहम कीजौ ,
अपने पन्ने से हमारे सब गुनाहों को मिटा दीजौ |.....मधु

तेरी सांस सांस पर जिस का अख्तियार है रे बन्दे,
एक एक सांस का तुझ से वो हिसाब जरूर लेगा ....मधु

उजाले से चकाचोंध हो कर इतना बदगुमां भी ना हो ऐ दोस्त !,
शाम होते ही ये उजाले घने अंधेरों में बदल जाते है .....मधु

वो दिन लौट के ना आयें तो इसे गम की बात ना समझ ,
आज का दिन भी कहीं खो ना जाए, इस का ख्याल रखना ....मधु

गुनाहों से बचने को आगाह तो किया था तूने हर बार हमें ,
गुनाहों की लज्ज़त ही कुछ ऐसी थी की हम डूबते ही चले गए ........मधु

याद तो बहुत किया था तुझे ऐ ! मालिक हमने मरते वक्त,
जिंदगी की गहमा गहमी में ही बस तुझे याद न रख सके हम ........मधु

ख्यालों का क्या है वो तो बहते चले आते हैं कभी ऊपर कभी नीचे ,
हकीकत तो ये है की ये जिन्दगी बस ढोने का ही दूसरा नाम है ....मधु

इक बात थी जो हम में तुम में होनी थी पर हो न सकी कभी ,
उस बात को गठरी में बांधे आज तक फिरते है हम....मधु

Labels:

7/01/2010

माँ ......


उस मासूम का जन्म मुझे पत्नी से माँ तो बना गया लेकिन ,
माँ बनने के बाद फिर कुछ और बनने की कभी चाहना ही ना रही,
एक संतोष ,एक गर्माहट सी उतर आई थी जीवन में ,
उस के नन्हे हाथों की छुअन आज भी मेरे गालों पर जिन्दा है ,
जिसे हर दिन नहाते वक्त पानी से भी बचाया है मैंने ,
उस की किलकारी ने नए संगीत को जन्माया है भीतर मेरे,
उस की तुतलाहट ने नए शब्दों का अर्थ उतारा है मेरे जीवन में,
उस के पीछे दौड़ते मैंने तितलियों की दुनिया को एक बार फिर से देखा है ,
और उस के साथ जिया है मैंने खरगोश की छुअन ओर चिडियायौ की चचहाहट को,
दूध को "दूद्दू" ,मुंह को "मुइयाँ" कहते हुए उसे बड़े होते देखा है मैंने,
वो मेरी आँख का तारा ,मेरे कलेजे का टुकड़ा मेरे मातृत्व का सौभाग्य चिन्ह,
आ !मेरे बेटे मैं तुझ पर अपनी उम्र ,अपनी खुशियाँ अपनी दुआएं न्यौछावर कर दूं,
हर बुरी नज़र से बचाने के लिए अपनी आँख के पुतली की कालिमा से ,
आ तेरी माथे पर एक छोटा सा नज़र का टीका रख दूं,
और सुन ..........................
मेरे बच्चे !.........
इस दुनिया में तू कुछ इस तरह से जिंदगी जीना
कि लोग जब तुझे देखें तो उन्हें मेरी भी याद आ जाए,
और वो कहें................................................
कि हाँ एक माँ थी कभी ,जिसने जन्मा था इस सपूत को,
आज वो माँ ना रही जिन्दा इस दुनिया में तो क्या है ,
वो माँ अपनी ही रची इस रचना में मर कर भी तो कहीं जिन्दा है,
उस माँ की अपनी इस निशानी में ,उस माँ की ही अपनी कहानी है ,
लोग कहते हैं कि माँ जन्म देती है अपनी औलाद को ,
सच तो ये है कि औलाद ही गढ़ती है अपनी माँ के किरदार को,
औलाद ही जन्म नहीं लेती ,लेती है जन्म एक माँ भी .....
.........मधु गजाधर

Labels: