हमारा घर
कभी
हमारा घर
वो एक
छोटा सा कमरा था ,
हमारा ,तुम्हारा ,
छोटा इतना कि
आते जाते ,
हम तुम टकरा जाते थे,
और फिर कभी मुस्करा उठते थे,
कभी झुंझला उठते थे
और कभी
बाँध लेते थे ,
एक दूसरे को अपनी बाहों में ,
ये कह कर ...
"अब बताओ "
रात को,
दिन का कमरा
सोने का कमरा बन जाता था,
मैं ,
इधर उधर बिखरी तुम्हारी किताबें ,
पसरे हुए कपडे,
चाय के इकठ्ठे किये कप,
फैला हुआ अखबार
संभालती ,
तुम को मीठी मीठी डांट पिलाती,
उस कमरे में सोने का आयोजन करती ,
थकी सी ,
निंदासी सी,
सिमिट जाती थी तुम्हारी बाहों में,
और
भूल जाती थी दुनिया जहान को,
सुनते थे हम दोनों एक दूसरे की
साँसों को ,
हर करवट की आवाज
बहुत अपनी सी थी ,
और हम सोते हुए
बड़े घर का सपना देखते थे ,
मैं अपनी पूजा प्रार्थना में
ईश्वर से बड़ा घर,
हमारा घर मांगती थी
क्योंकि
वो कमरा बहुत छोटा था ,
लेकिन ना जाने क्यों
तब भी वो
घर सा लगता था
और फिर
एक दिन
मिला बड़ा घर भी
हमारा तुम्हारा घर ,
सुन्दर सजा हुआ ,
ढेर से कमरे
बड़ा सा आँगन
पर ना जाने क्यों
मुझे आज तक
ये घर ,
कभी घर सा नहीं लगता है ,
बिखरे हैं हम सब इस में ,
अपने अपने कमरे में ,
अपनी अपनी दुनिया में खोय
,नहीं टकराते एक दूसरे से अब ,
हाँ ,
टकराते है दरवाजों से ,
उन बंद दरवाजों से
जिन्हें खटखटाना पड़ता है
एक दुसरे से मिलने ले लिए
नहीं गूंजती अब वो खिखिलाहट
वो हंसी
बड़े घर में
बड़े लोगों जैसा चलन ,
धीमे से ,आहिस्ता से
चलना, बात करना हँसना ,
आभिजात्यपूर्ण
उफ़ ! मेरा दम घुटता है
सुनो!
एक बात कहूं ?
क्या हम वापिस
उस एक कमरे के घर में
नहीं जा सकते ,
सच में
मेरा यहाँ दम घुटता है
मैं जीना चाहती हूँ
सिर्फ जिंदगी नहीं
मैं तुम्हें जीना चाहती हूँ
तुम से टकरा कर ,
तुम्हारी साँसों से अपनी साँसों का
समन्वय मिला कर ,
उस छोटे से घर के
बड़प्पन को जीना चाहती हूँ
बड़े घर का ये बौनापन ,
मुझे लील रहा है
तिल तिल कर के
हर दिन ..
हर पल ........मधु
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