ग़ज़ल "मुझे मंजूर नहीं "
एक ग़ज़ल ......
यूं तो खुश्क मंज़र और खुश्क दिल लोग हैं इसशहर के ,
पर बादल बरसे सिर्फ मेरे आँगन में ये मुझे मंजूर नहीं
,
कुछ अजनबियों को अपने घर में पनाह तो दी हमने ,
अब उन की खातिर अपनों को निकालूँ ये मुझे मंजूर नहीं
...
इधर मंदिर है, उधर मस्जिद है और मैं बीच में खड़ी हूँ ,
तेरी ही दुनिया में हो तेरा ही बंटवारा ये मुझे मंजूर नहीं
मेरी इबादत से अगर तू मुझे मिल भी जाय तो मेरे मौला!
इतने अपनों को छोड़ कर तुझे पाना मुझे मंजूर नहीं .....मधु 21 September at 20:27
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