Madhu's world: एक नदी सिर्फ मेरी..... l

5/18/2011

एक नदी सिर्फ मेरी.....

एक नदी सिर्फ मेरी.....
by Madhu Gujadhur on Saturday, 16 April 2011 at 21:56

एक दिन

जब मैं बहुत बैचेन थी

परेशान थी

व्याकुल थी,

अपनी व्यथा छिपाने के लिए,

अनुत्तरित प्रश्नों से बचने के लिए

खुल कर रो देने के लिए

मैं

घर से कुछ ही दूर

कल कल कर बहती

नदी के किनारे

बैठ गयी

पहले से घटित

सब कुछ एक बार

फिर से मेरे

मन से निकल कर

आँखों से उमड़ पड़ा

सुबकियाँ फ़ैल गयी उस वीराने में

और तब ही

अश्रुपूरित आँखों से

नदी की और देखा

नदी

वो मेरी नदी

आज वो नदी

बहुत व्याकुल थी

उस का बहना मानो आज

बहना नहीं तड़पना था

सर टकराती

पत्थरों से शोर पैदा करती

असंतुलित स्वर में

कटु धवनी पैदा करती

वो नदी

आज

बहुत अशांत थी

बैचैन थी

मेरेभीतरी

कोलाहल को अपने भीतर लिए ,

मेरी पीड़ा को अपने अन्दर समाय

बहुत बैचेनी के साथ ,

एक दर्द भरे संगीत को लिए

कल..कल..कल.कल

स्वर में

बह रही थी

मैं रो रही थी

नदी बह रही थी

मैं दुखी,व्याकुल थी

और नदी

तड़पती सी पानी के प्रवाह को लिए

मेरे सामने से गुजर रही थी

और देर तक

मैं रोती रही

और नदी

बहती रही...बहती रही...

औरफिर

एक वो दिन...

मैं तब

बहुत खुश थी,

अंतर्मन का स्वप्न पूरा होने के पायदान पर

इतनी खुशियाँ

कि संभाले नहीं संभल रही थी

अनचाहे ही

होठ मुस्कुरा रहे थे

बज रही थी स्वर्गिक

घंटियाँ सी

मेरे कानो में

नैनों की चमक

गालों की रक्तिम आभा

कैसे संभालू मैं ये सुख

उफ़....

किसी की नज़र ना लग जाए

मैं दौड़ कर

अपनी खुशियाँ छिपाती, बिखेरती

घर से कुछ ही दूर

कल कल कर बहती

नदी के किनारे

बैठ गयी .....

मेरा सुख मेरी खुशियाँ

मेरे मन से निकल कर

फ़ैल गयी उस नदी के किनारे पर

बड़ी मीठी सी खुशबू

चारों और

मैंने शर्मीली आँखों से

नदी की और देखा

आज वो नदी

नाजाने क्यों

मुझे कुछ मुस्कुराती सी लगी

आज नदी

बहुत शांत थी

इतरा कर बहती नदी

आज एक संगीत लिए

धीमे धीमे मेरे कानो में

जल का कल कल स्वर लिए

कुछ फुसफुसाती रही,

मुझे छेड़ छेड़ कर बहती रही,

मुझे छु छु कर अठखेलियाँ करती

मुझे रिझाती,

मुझे खिजाती

मेरे पैरं में अपने बहते जल की

फुहार सी छोड़ कर

मुझ पर अपना

प्रेम सा फैलाती

पत्थरों को छूती

उन से मेरी खुशियाँ बांटती

दूर दराज के जंगल तक

बह कर

मानो

मेरी बात बताने को व्याकुल

मेरी खुशियाँ बांटने को आतुर

नदी !

तेरा मेरा ये कैसा नाता है?

तू बाहर बहती है

लेकिन क्यों मुझे लगता है

नदी तू

मेरे भीतर भी बहती है

तू मेरी नदी है

सिर्फ मेरी नदी

और

तुझ में समाय हैं मेरे वो सब राज

जिन्हें बारहा मैंने

खुद से भी

छिपाने की कोशिश की है

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