Madhu's world: 2010/12 - 2011/01 l

12/03/2010

पत्नी .......

एक ही दिन,

एक ही नक्षत्र में ,

एक ही मंडप के तले,

सामान मन्त्रों के उच्चारण के साथ,

वरा था हम दोनों ने ,

एक दूसरे को ,

जन्मजन्मान्तर के लिए,

और की थी प्रतिज्ञा ,

दुःख सुख में सदा साथ निभाने की,

मिलजुल कर जीने की,

एक दूसरे से कभी कुछ ना छिपाने की,

मैं ..

डरी सी , सहमी सी, शरमाई सी ,

भरती रही अपने आँचल में ,

वो सब बातें,

सोचती थी ,

अपने आँचल की इस गठरी के साथ,

संभाल लूगी अपनी गृहस्थी ,

पा लूंगी तुम्हार प्यार,

बन पाउंगी सब की प्रिया,

पर मैं नादान, मूर्खा,

कभी सोच ही नहीं पायी ,

तुम्हारी गठरी कहाँ है ?

क्या धर्म, परम्पराएं, , रीति ,रिवाज

सब मेरे लिए हैं ?

तब तुम्हारी गठरी में क्या है ?

मैं जान ही नहीं पायी कि...

एक बंधन में बंध कर भी ,

हमारा धर्म,

हमारी परम्पराएं,

रीति ,रिवाज ,

नहीं हैं सामान ,

क्योंकि तुम हर नियम धर्म से परे थे,

तुम एक पुरुष थे

और जीवन कि इस बगिया से ,

बहुत आसानी से चुन लिए तुमने सभी गुलाब ,

मैं ,

एक पत्नी,

बैठी रह गयी काँटों कि चुभन से व्याकुल,

इस इन्तजार में

शायद तुम मेरी पीड़ा समझोगे,

एकदिन ...

बाँटोगे मेरा दुःख मेरे साथ,

चुन लोगे सब कांटे

लेकिन ..

ऐसा कभी हो ना पाया ...

तुम्हारे पास समय नहीं था,

अनुभूति बंट चुकी थी तुम्हारी ,

खुली आँखों में तुम्हारी,

उतर आये थे सपने अनेक,

और उन सपनों में ,

मैं कहीं नहीं थी,

फ़ैल चुकी थी तुम्हारी दुनिया बहुत दूर तक,

और मैं...

वहीँ कि वहीँ थी ,

कलेजे से अपनी गठरी लगाए ,

रह गयी बहुत पीछे कहीं ,

जहाँ पर तुम्हारी नज़र ही नहीं पहुच पायी कभी ,

आज उम्र के इस दौर पर आकर

मैं समझ पायी हूँ कि ...

तुम ने बस लेना ही जाना ,

और लेने में भोगा है देने का सुख ,

मैंने बस देना ही जाना ,

और देने में भोगा है लेने का सुख,

क्योंकि मैं एक पत्नी थी ....मधु

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मेरे पूर्वज बताते थे कि....

मेरे पूर्वज बताते थे कि....

बहुत दिन हुए

हमारे देश में "सदभाव" का था

एक बहुत घना जंगल,

और ......

उस घने जंगल में

बहुत अन्दर जाकर था ,

'धर्म" का एक पहाड़ ,

और उस पहाड़ के ऊपर था

"प्रेम" के दुर्लभ और लुप्तप्राय पत्थरों से बना ,

एक विशाल मंदिर,

जिसे लोग "विशवास" का मंदिर कहते थे ,

उस मंदिर तक पहुचने के थे

रास्ते अनेक ,

और चूंकि मंदिर बहुत ऊंची पहाड़ी पर स्थित था

इसलिए

उस तक पहुचने के लिए हर रास्ते पर बनी हुई थीं

"आस्था" की बहुत सी सीड़ियाँ,

कहते हैं कि...

उस मंदिर के प्रागण में

"अपनत्व" का एक सरौवर था

जिस के अंदर "नाते ,रिश्तों" के

और सरौवर के बाहर "बन्धु,बांधवों" के

सुन्दर फूल खिले रहते थे ,

उन से टकरा टकरा कर बहती थी

"पर्वों "और "त्योहारों" की, भीनी बयार ,

सुबह शाम मंदिर में ईश्वर की स्तुति होती थी ,

"ज्ञान "के शंख और घंटों के साथ ,

"संघठन" की आरती होती थी

और बाद में बंटता था , "आशीर्वाद" और "शुभ कामनाओं" का प्रशाद .......

मेरे पूर्वज बताते थे कि....

उस मंदिर कि विशेषता ये थी कि ...

वहां जाकर पूजा अर्चना करने के बाद कभी कोई ,

"दीन, दुखी ", "निस्सहाय," "अस्वस्थ","एकाकी"

नहीं रहता था ,

ऐसा चमत्कारी मंदिर था

वो मेरे पूर्वज बताते थे कि....

फिर .........

धीरे धीरे मौसम बदलने लगा ,

अचानक "ईर्ष्या" ,"द्वेष" की आंधियां चलने लगी ,

"छल" ,"कपट" की खूब बारिश हुई

रह रह कर "स्वार्थ" के खूब ओले भी बरसे

इस तेज हवा ,पानी आंधी और ओले की मार के चलते

लोग उस मंदिर तक जा ना सके ,

फिर धीरे धीरे वो उस चमत्कारिक मंदिर को भूलने भी लगे

मेरे पूर्वज बताते थे कि.... .......

"कर्तव्य" रुपी रख रखाव के अभाव में वो मंदिर ,

"जीर्ण ,शीर्ण" हो गया ,

"आस्था" की सीड़ियाँ टूटने लगीं ,

मंदिर में लगे प्रेम के पत्थर ढहने लगे ,

लोग उन्हें चुरा कर बेचने लगे

और फिर धीरे धीरे विशवास का वो मंदिर ढहढहा के टूटने लगा

सरोवर के सब फूल सूखने लगे

और उस में अज्ञानता के" कीड़े " पनपने लगे ,

सुगन्धित बयार अब अनेक" प्रदूषणों" के साथ सब और फैलने लगी ,

अनेक नयी "व्याधियां" उत्पन्न होने लगी ,

"कुकर्मों" के पौधे घर घर में पनपने लगे

"वैमनस्य" की "दीवारों"का चलन बढ़ गया ,

"मैं और मेरा "का कुरीति पूर्ण "त्यौहार" घर घर में मनाया जाने लगा

मेरे पूर्वज बताते थे कि..........

की सब कुछ होते हुए भी मानव

"कंगाल" की भांति जीने लगा

"दुखी', 'अतृप्त',' निराश ','भयभीत "

उफ़....इतनी पीड़ा ?

मुझे याद है

तब मैंने अपने पूर्वजों से पूछा था

क्या है कोई

"इस विषम स्तिथि से निकलने का मार्ग "?

और मेरे पूर्वजों ने बताया था ,

एक रास्ता,

सिर्फ एक ही रास्ता कि ... .....

धर्म की पहाड़ी पर विशवास के मंदिर का

यदि पुनः निर्माण किया जाए ,

और लोग आस्था की

सीड़ियाँ चढ़ कर

प्रतिदिन पूजा अर्चना करने जाएँ तो

एक बार फिर सब कुछ

"सुखद" और "अभूतपूर्व" हो सकता है

और मैं

बहुत हिम्मत कर के

उस के निर्माण कार्य हेतु निकली हूँ आज ....

क्या आप मुझे अपना साथ देंगे ?

मेरे पूर्वजों ने ये भी बताया था.................

कि......

याद रखना

जब भी शुभ कार्यों के लिए निकलोगे

शुभ लक्षणों वाले सज्जन लोगों की ,

भीड़ तुम्हारे साथ होगी .............मधु


मेरे पूर्वज बताते थे कि....

बहुत दिन हुए

हमारे देश में "सदभाव" का था

एक बहुत घना जंगल,

और ......

उस घने जंगल में

बहुत अन्दर जाकर था ,

'धर्म" का एक पहाड़ ,

और उस पहाड़ के ऊपर था

"प्रेम" के दुर्लभ और लुप्तप्राय पत्थरों से बना ,

एक विशाल मंदिर,

जिसे लोग "विशवास" का मंदिर कहते थे ,

उस मंदिर तक पहुचने के थे

रास्ते अनेक ,

और चूंकि मंदिर बहुत ऊंची पहाड़ी पर स्थित था

इसलिए

उस तक पहुचने के लिए हर रास्ते पर बनी हुई थीं

"आस्था" की बहुत सी सीड़ियाँ,

कहते हैं कि...

उस मंदिर के प्रागण में

"अपनत्व" का एक सरौवर था

जिस के अंदर "नाते ,रिश्तों" के

और सरौवर के बाहर "बन्धु,बांधवों" के

सुन्दर फूल खिले रहते थे ,

उन से टकरा टकरा कर बहती थी

"पर्वों "और "त्योहारों" की, भीनी बयार ,

सुबह शाम मंदिर में ईश्वर की स्तुति होती थी ,

"ज्ञान "के शंख और घंटों के साथ ,

"संघठन" की आरती होती थी

और बाद में बंटता था , "आशीर्वाद" और "शुभ कामनाओं" का प्रशाद .......

मेरे पूर्वज बताते थे कि....

उस मंदिर कि विशेषता ये थी कि ...

वहां जाकर पूजा अर्चना करने के बाद कभी कोई ,

"दीन, दुखी ", "निस्सहाय," "अस्वस्थ","एकाकी"

नहीं रहता था ,

ऐसा चमत्कारी मंदिर था

वो मेरे पूर्वज बताते थे कि....

फिर .........

धीरे धीरे मौसम बदलने लगा ,

अचानक "ईर्ष्या" ,"द्वेष" की आंधियां चलने लगी ,

"छल" ,"कपट" की खूब बारिश हुई

रह रह कर "स्वार्थ" के खूब ओले भी बरसे

इस तेज हवा ,पानी आंधी और ओले की मार के चलते

लोग उस मंदिर तक जा ना सके ,

फिर धीरे धीरे वो उस चमत्कारिक मंदिर को भूलने भी लगे

मेरे पूर्वज बताते थे कि.... .......

"कर्तव्य" रुपी रख रखाव के अभाव में वो मंदिर ,

"जीर्ण ,शीर्ण" हो गया ,

"आस्था" की सीड़ियाँ टूटने लगीं ,

मंदिर में लगे प्रेम के पत्थर ढहने लगे ,

लोग उन्हें चुरा कर बेचने लगे

और फिर धीरे धीरे विशवास का वो मंदिर ढहढहा के टूटने लगा

सरोवर के सब फूल सूखने लगे

और उस में अज्ञानता के" कीड़े " पनपने लगे ,

सुगन्धित बयार अब अनेक" प्रदूषणों" के साथ सब और फैलने लगी ,

अनेक नयी "व्याधियां" उत्पन्न होने लगी ,

"कुकर्मों" के पौधे घर घर में पनपने लगे

"वैमनस्य" की "दीवारों"का चलन बढ़ गया ,

"मैं और मेरा "का कुरीति पूर्ण "त्यौहार" घर घर में मनाया जाने लगा

मेरे पूर्वज बताते थे कि..........

की सब कुछ होते हुए भी मानव

"कंगाल" की भांति जीने लगा

"दुखी', 'अतृप्त',' निराश ','भयभीत "

उफ़....इतनी पीड़ा ?

मुझे याद है

तब मैंने अपने पूर्वजों से पूछा था

क्या है कोई

"इस विषम स्तिथि से निकलने का मार्ग "?

और मेरे पूर्वजों ने बताया था ,

एक रास्ता,

सिर्फ एक ही रास्ता कि ... .....

धर्म की पहाड़ी पर विशवास के मंदिर का

यदि पुनः निर्माण किया जाए ,

और लोग आस्था की

सीड़ियाँ चढ़ कर

प्रतिदिन पूजा अर्चना करने जाएँ तो

एक बार फिर सब कुछ

"सुखद" और "अभूतपूर्व" हो सकता है

और मैं

बहुत हिम्मत कर के

उस के निर्माण कार्य हेतु निकली हूँ आज ....

क्या आप मुझे अपना साथ देंगे ?

मेरे पूर्वजों ने ये भी बताया था.................

कि......

याद रखना

जब भी शुभ कार्यों के लिए निकलोगे

शुभ लक्षणों वाले सज्जन लोगों की ,

भीड़ तुम्हारे साथ होगी .............मधु

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