Madhu's world: मेरे शेर ..... l

1/10/2012

मेरे शेर .....

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विचारों की अंतरंगता से ही पनपती है गरिमा संबंधों की ,
वर्ना जो कुछ है कहा सुना वो , सब तो है मात्र "कोलाहल......मधु

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चलो आज कुछ नए ढंग से जीयें ,ना तुम कुछ कहो ,ना हम कुछ कहें
मौन को ही समझ कर समर्पण..... चलो आज ग़मों को सांसों से पीयें .......मधु

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अग्नि पथ पर ,अग्नि रथ में , अग्नि के आकाश तले
अग्नि तेज लिए माथे पर , युवा अग्नि को मेरा नमन ....मधु

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तू इस नज़र से भी तो मुझे कभी आंकने की ,एक कोशिश तो कर के देख ,
कि करोड़ों की इस दुनिया में सिर्फ तुझे ही चाहना ,ये कोई मामूली बात नहीं .......मधु

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तैर सकते थे पर डूब जाना ,हमारी अपनी ही ख्वाइश थी दोस्तों ,
किनारे के उथलेपन से तो हमें ,मंझधार का गहरापन ज्यादा भाया....मधु

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हमारे ख़्वाबों में तो वो हम से बहुत गर्मजोशी से मिला करता है ,
चलो इन ख्वाबों से ही सही ,जीने का आसरा तो मिल जाता है हमें ....मधु

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ना किसी मंदिर में जाते हैं हम , ना किसी मस्जिद में जाते हैं हम,
बसा कर तुझे भीतर अपने ........ बस बार बार झांक लेते हैं हम ......मधु

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कभी शक्ल -ओ- सूरत ,कभी हुनर की कमी तो कभी नाइंसाफी ने मारा,
तेरी दुनिया में हम जिये ही कब थे ,जो आज रस्म -ए- मौत निभायी तूने .......मधु

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क्या गज़ब..कि तुझ से करें मुहोब्बत तो वो एक इबादत है ,
तेरे बन्दे से करें मुहोब्बत तो ....वो एक गुनाह बन जाता है ........मधु

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साथ चलने को अपने , हम तुम्हें मजबूर ना करते हरगिज़
साथ चलना अगर उस शहर की ,अपनी एक रवायत ना होती ......मधु

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दिल ही तो था मेरा छोटा सा ,कोई जागीर तो ना थी,
इसलिए जब टूटा,.... तो हम चुप लगा कर रह गए ........मधु

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एक मुहोब्बत को पाने के लिए कहाँ कहाँ और कैसे कैसे भटकता है इन्सां,
काश ! कि जिस्म से परे देखता बस एक बार ,जहाँ मुहोब्बत ही मुहोब्बत है .......मधु

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तेरी दुनिया में कभी मैंने बनायी थी अपनी एक नयी दुनिया ,
आज मेरी भी उस दुनिया में कितनी ही नयी दुनिया बन आई हैं .......मधु

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सागर ने तो ना जाना कभी , मेरी इन आँखों की नमी को ,
मेरी आँख से टपके कतरे में , फिर ये सागर क्यूं समां गया ?.........मधु

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कितनी छोटी सी दुनिया है मेरी अपनी रहमत से नवाज दे मालिक ,
थोड़े में भी गुज़र कर लूगी मैं ..... तेरी 'रहमत' जो बस साथ हो मेरे ......मधु

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किसी की मुहोब्बत में पगला जाऊं मैं, ये मुमकिन ही नहीं है ,
जिस्म तो दिया है मगर मेरी रूह पर तो कब्ज़ा तेरा ही है मालिक .......मधु गजाधर

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अरे क्यों 'हलकान' हुई जाती है ऐ जिंदगी ! तू कुछ और पाने के .लिए ,
जो मिला भी है उसे तो साथ ले जाने की कोई 'तरकीब' इजाद होने दे पहले.....मधु गजाधर

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मुझे तलाशने तो दो शायद कहीं आज भी मिल जाए कोई शख्स ऐसा ,
कि जिसने अपने 'मज़हब' वतन'और जुबान को हर चीज़ से ऊपर रखा .....मधु

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पत्थर ही होता तो तराश कर मूरत, उसे अपने दिल में बसा लेते हम ,
भाप सा उड़ा फिरता है वो तो कभी' खुश्की' तो कभी' नमी' बन कर ......मधु

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अल्लाह ! ये इतने कंधे कहाँ से जुट गए हैं हमारी मय्यत को ,
जीते जी तो सिर टिकाने को ...................एक भी न मिला ...मधु

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रूह मेरी सिसक सिसक कर करती है बहुत बार ....ये तकादा मुझ से ,
कब तक बस जिस्मों से मिलवायेगा,किसी रूह से भी तो मिलवा कभी .....मधु

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रख कर किसी के कंधे पर सर , गम बाँटते अपना...... ये हो न सका ,
हर शख्स को तो उसके कंधे पर खुद अपना ही सर रखे पाया हमने .....मधु

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हौसला अफ्जाई भी लोगों की अब तो कोई हिम्मत नहीं देती ,
जब से आईने में खुद का खुद से ..........दीदार कर लिया है .........मधु

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उसूलों के तो बहुत पक्के थे हम, फिर ये क्या हुआ अचानक,
कि आज जब वो सामने आया उफ़ ! "हम "तो "हम" ही ना रहे ....मधु

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क्योंकर खो जाती हैं खुशियाँ कि एक पल भी नहीं लगता ,
बटोरते बटोरते जिन्हें जिस्म, जान और उम्र लगा देते हैं हम .....मधु

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कहाँ कहाँ ढूंढते तुझे इस दुनिया में ,किस किस से पता पूछते तेरा ,
बस बन कर फ़कीर गली गली तुझे खुद ढूंढना शुरू कर दिया हमने .........मधु

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बस एक तिशनगी सी है तेरे "दीदार " की और तो कोई बात नहीं,
वर्ना इंतजाम तो जीने के सारे, तूने कर ही रखे हैं अपनी दुनिया में ........मधु

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अपने ही भीतर के अंधेरों से घबरा कर हम ,सरे शाम दिए जला देते हैं
और लोग हमें 'मज़हबी' समझ , झुक झुक कर सलाम करते हैं ......मधु

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मेरे "मैं" को तुम मेरा होना समझते हो तो गफलत में हो ,
मेरा "मैं" तो तब ही मिट गया था जब. "तू" मिल गया था उसे ......मधु

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सुख की नदी में तैरते तो रहे मगर किनारा ना ढूँढा कभी हमने ,
सूखना ही था नदी को तो एक दिन ,सूख गयी अब हम कहाँ जाएँ ?.......मधु

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वो रास्ता जो कभी मेरी मंजिल हुआ करता था ,
अब हर आने जाने वाले से ,मेरा पता पूछता है ......मधु

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सहारा कितना दोगे तुम मुझे , अब खुद खड़ा होने दो ,
'औरत' हूँ सदियों से तो बस ..........घिसटती ही आई हूँ मैं ....मधु

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अपने जिस्म पर पड़ी मार के नीले निशानों को सहलाते हुए वो दुआ करती है,
जो मेरे साथ हो रहा है तेरे सदके मेरे मालिक ! ,मेरी बेटी के साथ ना होने देना .......मधु

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तेरी मुहोब्बत इस कदर हावी है मुझ पर मेरे मालिक,
कि हर 'शै. में तुझे ढूंढते ढूंढते पगला सी गयी हूँ मैं ......मधु

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विवाह मंडप में बस एक बार बांधी थी गाँठ किसी ने मेरे ओढने में ,
तब से हम खुद ही हर रोज ,एक गाँठ मुहोब्बत की बांध लेते हैं ......मधु

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ख्वाब, ख्वाईशें और अरमान तो हमारे भी थे बहुत ,
बस एक शख्स की मुहोब्बत में हमें सब कुछ मिल गया .......मधु

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चाह तो हम को भी थी ,नए रास्तों पर चल कर नयी दुनिया को देखने की,
मगर अपनी 'जड़' 'जमीन' और गलियों का मोह ,उन पर भारी पड़ गया .......मधु

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किसी भी ठौर पर ये दिल मेरा ,अब टिकता नहीं है या रब,
जब से उसने "तेरे" होने का अहसास करवाया है मुझे .......मधु

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ना जन्मपत्री दिखवाई कभी , ना हाथों की लकीरों को ही पढवाया हमने ,
जो पढ़ लिया था उस की आँखों में , बस उसी से सज़ा ली दुनिया अपनी.......मधु

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On my birthday , It my heart felt dedication to my husband....

कितनी सादगी से वो मेरी कमियों को मुस्कुरा कर क़ुबूल कर लेता है ,
सच में वो "खुदा" तो नहीं है लेकिन उस में "खुदा' जैसा कुछ तो है जरूर .......मधु

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आह ! कितनी मजबूती से थामे रखा है मेरा हाथ तुमने अब तक ,
सच कहूं ? .............मुझे तो कभी खुद पर ऐतबार ही नहीं होता ......मधु

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सोचा है .......बार बार सोचा है ........बहुत बार सोचा है हमने ,
तुम ना मिलते तो जिंदगी के अंधेरों में ,हम तो गुम ही गए होते .......मधु

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हम तो सब से छुपा कर अपने भीगे सिरहाने को सुखाने छत्त पर आये थे ,
क्या गज़ब कि हर छत्त पर हमने........बस सिरहानों को ही सूखते देखा.....मधु

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रहमतें तो उस की आसमान से बरसतीं रहीं सारी रात ,
बदकिस्मती कि हम दरवाज़ा खोल कर बाहर आये ही नहीं .......मधु

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बारहा मुझे ही नहीं मालूम होता ,मैं क्या सोचती हूँ, क्या करती हूँ क्या कहती हूँ लेकिन ,
वो ना जाने कहाँ छिपा बैठा, ना जाने किन तरीकों से मेरे पल पल का हिसाब रख लेता है .......मधु

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उगते सूरज को तो झुक झुक कर सलाम करते हैं लोग ,
मेरे घर को तो डूबता सूरज भी उजाले से भर कर जाता है ........मधु

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नज़रों से गिरा भी दोगे कभी ,तो एक बार मैं फिर से उठ जाउंगी ,
मेरा तो वजूद ही नहीं रहेगा अगर तुम दिल से गिरा दोगे मुझको .......मधु

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औरत हूँ मैं मगर तेरे अलावा ,किसी शै का खौफ नहीं है मुझ को
बस एक "माँ" के चोले में घुसती हूँ ,तो कुछ कमजोर पड़ जाती हूँ मैं .......मधु

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अपनी दुनिया को संवारने की लिए मैं कुछ मांगू तुझ से ,
मैं एक बेटी हूँ ,पत्नी हूँ, माँ हूँ, इतना तो हक़ बनता है मेरा ........मधु

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बहुत थक गयी हूँ अब तो तू अपने झुर्रियों भरे हाथों से ,
सहला कर माँ ! मेरी जिंदगी की सब झुर्रोयों को मिटा दे.....मधु

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ख़्वाब तो ना जाने रोज़ कितने दिखा देती है ऐ जिंदगी तू मुझ को ,
उन ख़्वाबों को मैं पूरा कर पाऊं .वो ताकत भी तो अता कर कभी .......मधु

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वो बदलता था मौसम की तरह ,ये तो काबिल-ए-बर्दाश्त था हमें ,
कसक तो ये है कि वो मौसम की तरह ,फिर कभी लौट कर नहीं आया .......मधु

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कितनी ही बार खुशियों ने मुझे रोक रोक कर ये पूछा है ,

क्या बात है तुम हमें बांटने पर क्यों उतारू रहती हो जी ?.......मधु

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एक चिंगारी सी दहकी थी कभी "ईमान" की बरसों पहले
,भीतर ही भीतर तपा कर उसने ,मुझे 'खरा" बना दिया .....मधु

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मुकद्दर के हाथ से लेकर चाभी आगे पहुँच जाते हैं बहुत लोग,
सलाम तो उस जज्बे को जो , अपनी चाभी खुद बनाने में लगा है ...........मधु

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गुज़ार कर उम्र सारी तेरी दुनिया में ,क्या ये काफी नहीं है कि ,
जिए हम कुछ इस तरह कि तेरे सामने सर उठाने की हिम्मत है .......मधु

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यूं तो कुछ ऐसा गुनाह भी ना था फिर भी ना जाने क्यों ,
जब से मुहोब्बत की है, खुद से खुद को छिपाए फिरते हैं हम ......मधु

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कितने खुश-किस्मत हैं वो लोग ,कि जिन्हें नींद नहीं आती,
हमारी तो नींद में आये ये ख्वाब, उफ़ ! हमारी जान लिए जाते हैं .......मधु

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रात के सन्नाटे में उभरतें हैं ............. जो ढेरों ख्याल मेरे इर्द गिर्द ,
उन्हें पन्नो पर उकेरना , ये मेरी चाहत नहीं उन ख्यालों की ही ताकत है .......मधु

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करने को तो तुझ से शिकवे भी हैं बहुत और शिकायतें भी ,
मगर फिर भी अहसानमंद हूँ कि तूने 'औरत 'बनाया है मुझे .......मधु

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ना हालात से समझौता किया , ना कभी अख़लाक़ को बेचा हमने,
और आज दुनिया से जाने की घडी में ये हुनर कितना काम आया है ,.....मधु

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बेकार ही उलझ जाते हैं हम अपने जज्बातों को लेकर ,
इस तरक्कीयाफ्ता जमाने में जज्बातों का भला क्या काम ......मधु

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आदत तो माँगने की मालिक से ,हम को भी बहुत थी लेकिन
जब से उसने तुझ को दिया हमें, कुछ मांगने की अब चाहत ही ना रही .........मधु

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जरूर किसी बेशकीमती शै से बनाया होगा उसने इस औरत को ,
कि सदियों के जुल्म सहने के बावजूद वो तो और भी निखर आई है .....मधु

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बैठ कर ढूंढूं मैं फुर्सत के रात-दिन ,ये मकसद ही नहीं है
कारगर हों ये दिन रात मेरे, बस इस जज्बे से जिये जाती हूँ .........मधु

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रहने को उस के दिल में ,बस एक छोटा सा कोना माँगा था हमने ,
महरबां था वो इतना कि अपने दिल के बाहर की सब जगह दे दी .......मधु

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वो कमजोरियां मेरी ,जिन्हें मैं कभी दूर नहीं कर पायी ,
किसी को तकलीफ ना दें , बस इतना रहम करना मेरे मालिक .......मधु

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कोई इम्तिहान ही ले लेता मेरा ,कोई मौका तो देता मुझ को ,
अपनी ही मर्ज़ी के मुताबिक मेरी तकदीर क्यों लिखी तूने ?.......मधु

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ना कोई गिला शिकवा , ना कोई मांग ना वादा किया कभी ,
बस खोल कर मेरी मुट्ठी उसने , किस्मत की चाबी थमा दी.......मधु

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हमें काटनी ही होती जिंदगी ,तो बहुत आसान था जीना ,
हम तो जीने से बढ़ कर , कुछ करने हौसला रखते थे ......मधु

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नयी तहजीब की इस दुनियादारी में ,हम भी माहिर रहे होते,
तूने अगर हमारे खून में "उसूलों' की मिलावट ना की होती ........मधु

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ना जाने कब ,कहाँ, कैसे जलाया था, किसी ने एक दीया उम्मीद का ,
सदियाँ गुज़र गयी मगर वो दीया, आज भी कहीं ना कहीं जल रहा है .......मधु

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कोई अपनी तरह होता ,तो अपना दिल भी जुड़ जाता',
ना कोई हम सा ही हो पाया, ना हम खुद को बदल पाए .......मधु

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किस की किस शक्सियत पर ऐतबार करूं? हैरान हूँ मैं
कि यहाँ तो हर बन्दे के भीतर दस दस किरदार जीते हैं .......मधु

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अरे ! ये मैंने क्या कर डाला ,मखमली धूप के पन्ने पर
सूरज की रंगत से लिखा एक ख़त, चाँद को भेज डाला ......मधु

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छीन कर कलम उस के हाथो से हमने एकदिन ,
अपनी तखदीर में खुद ही बहुत कुछ लिख डाला ........मधु

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हालात तेरी धरती पर यूं दर्दो-ओ-गम से भरे ना होते अगर ,
हम को सिखाने की बजाय तूने खुद रहम करना सीखा होता ......मधु

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बुलंदियों की ऊँचाई सिर्फ परवाज से ही नहीं मिलती,
कच्ची सड़कें गाँव की भी वहां पहुचाने की क़ाबलियत रखती हैं .......मधु

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गर्दिश की धूल को हम हौसले के रुमाल से पौंछते रहे ,
ना किस्मत पर धूल जमने दी, ना इज्जत को धुंधला होने दिया .......मधु

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बाद मेरे मरने के मेरे जिस्म को कफ़न में क्यूं लपेट दिया यारो ?,
ये जिस्म मेरा तो पहले से ही ,अधूरी ख्वाइशों में लिपटा हुआ था ......मधु

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मैं फ़कीर हूँअगर उन की नज़रों में, तो मुझे कोई हैरानी नहीं ,
अरे ! जमीर के गहने की परख.............सब को तो नहीं होती .......मधु

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लोग तो ये कहते हैं कि वक्त के साथ भर जाते हैं सब घाव ,
भरते नहीं हैं घाव कभी, बस भीतर रिसना शुरू हो जाते हैं ......मधु

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किस किस के दिल को टटोलते ,जगह थोड़ी सी पाने के लिए ,

हमने तो अपने ही दिल में आज , खुद को जगह दे दी .......मधु

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कितने बेताब से रहते थे कभी हम ,इन बुलंदियों को छूने के लिए,
आज यहाँ पहुच कर भी फिर से ,वापिस लौटने को दिल क्यों तड़पता है ......मधु

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कोई अहसान नहीं किया तूने, दुनिया में भेज कर हमें,
हम ना होते तो भला ,तेरी दुनिया को चलाता ही कौन ?........मधु

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दो ही गज की तो दूरी थी बस , मेरे और उस के दरम्यान ,
दो गज हम चल ना सके.......इन्तिज़ार वो कर ना सका ......मधु

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किताब के किसी पन्ने पर उसने ,लिख दी थी दो लाइने कभी ,
आह ! पढ़ कर आज बरसों बाद भी ,आँखें गीली सी हो आयीं .........मधु



4 December 2011

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एक छत के नीचे जहाँ आज भी रिश्ते जब दांव पर लगे हों
आसमान पर रहने वाले ! मैंने तुझ से नाता बनाये रखा है .....मधु





4 December 2011

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दिल, दरख़्त और दरिया इन्हें सूखने ना देना कभी,
इस कायनात का दारोमदार ,बस इन्हीं के जिम्मे पर है .......मधु

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आह ! क्या गज़ब हौसला था उस शख्स का कि एक रात ,
चाँद के जिस्म पर वो अपनी ........प्रेम कहानी लिख आया .....मधु

3 December 2011

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ये किस की दुआओं ने बिछा दिए हैं इतने फूल मेरी राहो में ,
कि इक्के दुक्के काँटों के अलावा ,जिंदगी एक गुलशन सी रही .......मधु

1 December 2011

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वो जरा भी परेशान होता है तो उफ़ ! मेरी तो जान निकल जाती है ,
मुझे जिन्दा रखना है तो उस के सब गम मुझे अता कर दे मालिक .......मधु



1 December 2011

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कर के मशक्कत हम भी संवार लेते जिंदगी अपनी ,
तूने हर सांस पर अगर अपना पहरा ना बिठाया होता ...मधु



20 September 2010

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इस खुशनुमा मौसम में, एक ग़ज़ल सी उभर आई है ,

और लोग ये कहते है कि ये हुस्न -ए-बयां तेरा है ...मधु

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