Madhu's world: माँ ...... l

7/01/2010

माँ ......


उस मासूम का जन्म मुझे पत्नी से माँ तो बना गया लेकिन ,
माँ बनने के बाद फिर कुछ और बनने की कभी चाहना ही ना रही,
एक संतोष ,एक गर्माहट सी उतर आई थी जीवन में ,
उस के नन्हे हाथों की छुअन आज भी मेरे गालों पर जिन्दा है ,
जिसे हर दिन नहाते वक्त पानी से भी बचाया है मैंने ,
उस की किलकारी ने नए संगीत को जन्माया है भीतर मेरे,
उस की तुतलाहट ने नए शब्दों का अर्थ उतारा है मेरे जीवन में,
उस के पीछे दौड़ते मैंने तितलियों की दुनिया को एक बार फिर से देखा है ,
और उस के साथ जिया है मैंने खरगोश की छुअन ओर चिडियायौ की चचहाहट को,
दूध को "दूद्दू" ,मुंह को "मुइयाँ" कहते हुए उसे बड़े होते देखा है मैंने,
वो मेरी आँख का तारा ,मेरे कलेजे का टुकड़ा मेरे मातृत्व का सौभाग्य चिन्ह,
आ !मेरे बेटे मैं तुझ पर अपनी उम्र ,अपनी खुशियाँ अपनी दुआएं न्यौछावर कर दूं,
हर बुरी नज़र से बचाने के लिए अपनी आँख के पुतली की कालिमा से ,
आ तेरी माथे पर एक छोटा सा नज़र का टीका रख दूं,
और सुन ..........................
मेरे बच्चे !.........
इस दुनिया में तू कुछ इस तरह से जिंदगी जीना
कि लोग जब तुझे देखें तो उन्हें मेरी भी याद आ जाए,
और वो कहें................................................
कि हाँ एक माँ थी कभी ,जिसने जन्मा था इस सपूत को,
आज वो माँ ना रही जिन्दा इस दुनिया में तो क्या है ,
वो माँ अपनी ही रची इस रचना में मर कर भी तो कहीं जिन्दा है,
उस माँ की अपनी इस निशानी में ,उस माँ की ही अपनी कहानी है ,
लोग कहते हैं कि माँ जन्म देती है अपनी औलाद को ,
सच तो ये है कि औलाद ही गढ़ती है अपनी माँ के किरदार को,
औलाद ही जन्म नहीं लेती ,लेती है जन्म एक माँ भी .....
.........मधु गजाधर

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1 Comments:

At 8 July 2010 at 01:08 , Anonymous chandrapal said...

सुन्दर कवितायें. पहली कविता पे निहाल हूँ. उस से उबरूं तो कुछ और देखूं इस अंक में. माँ का बहुत ही सूक्ष्मता से वर्णन किया है, मन के कलुष का… और बहुत ही सहजता से पढ़ते-पढ़ते , धीरे-धीरे मन का आँगन आँखों के सामने शुचिता की ओर जाता दिख रहा है. अंत में सच में एक सुखद अनुभूति होती है.
ऎसी कविता जो अपने साथ पढने वाले को ऊपर उठाती है, हमारे समय की देन होंगी ये हमारी आने वाली पीढियों को !

 

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